दुख रुपी परतो के अवरण में
फँसी ये हँसी …
चीखती है, चिल्लाती है...
कर दो आजाद मुझे
दुख व डर की..
सलाखो को निहारती ये हँसी...
मौन हो मन ही मन बुदबुदाती
कर दो आजाद अब तो मुझे
तभी दुखी परते सुन ये बुदबुदाहट
फैलाती है अपने पँख
ओर ले लेती है फिर
अपनी ओट मे..
मौन के सन्नाटे मे फिर..
खत्म हुआ अस्तित्व
इस हँसी का ।
Anjanna
चित्र गूगल साभार
बहुत बढ़िया...!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,,,सुंदर रचना,,,,,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,
बहुत खूब.... आपके इस पोस्ट की चर्चा आज 29-6-2012 ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित है ..अपने बच्चों के लिए थोडा और बलिदान करें.... .धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...
जवाब देंहटाएंBahut gahri prastuti ... Hansee ki chaah pe moun ka sannata ...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना !!
जवाब देंहटाएंसुख हो या दुःख मुस्कराहट बनी रहनी चाहिए .....
दुःख जब जब आता है ... हंसी ले जाता है अपने पंखों में ...
जवाब देंहटाएंसंगीता स्वरुप ( गीत )जी, आप की टिप्पणी स्पैन मे चली गई थी इसलिए प्रकाशित नही कर पाई ।लेकिन आप के कहने पर टेक्स्ट का बैक ग्राउंड बदल दिया है । उम्मीद है आप को अब पढने मे कोई परेशानी नही होगी । आभार...
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंmaun ka sannata:)
जवाब देंहटाएंbehtareen!
मौन ...कभी बुरा कभी भला
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको ...
han bachcho par adhik bandish unke vikaas me badhakhai.
जवाब देंहटाएंgood poem.
जवाब देंहटाएं